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कविता

सूर्यास्त की आभा भी जब अस्त हो रही होती है

ज्ञानेंद्रपति


सूर्यास्त की आभा भी जब अस्त हो रही होती है
नदी का जल-पृष्ठ निरंग हो धीरे-धीरे सँवलाने लगता है जब
देखता हूँ, नदी के पारतट के ऊपर के आकाश में
एक झुंड है पक्षियों का
धुएँ की लकीर-सा वह
एक नीड़मुखी खगयूथ है
वह जो गति-आकृति उर्मिल बदलती प्रतिपल
हो रही ओझल
सूर्यास्त की विपरीत दिशा में नभोधूम का विरल प्रवाह
                           वह अविरल
क्षितिज का वही तो सांध्य रोमांच है
दिनांत का अँकता सीमांत वह जहाँ से
रात का सपना शुरू होता है
कौन हैं वे पक्षी
दूर इस अवार-तट से
पहचाने नहीं जाते
लेकिन जानता हूँ
शहर की रिहायशी कालोनियों में
बहुमंजिली इमारतों की बाल्कनियों में
ग्रिलों-खिड़कियों की सलाखों के सँकरे आकाश-द्वारों से
घुसकर घोंसला बनाने वाली गौरैयाएँ नहीं हैं वे
जो सही-साँझ लौट आती हैं बसेरे में
ये वे पक्षी हैं जो
नगर और निर्जन के सीमांत-वृक्ष पर गझिन
बसते हैं
नगर और निर्जन के दूसरे सीमांत तक जाते हैं
दिनारंभ में बड़ी भोर
खींचते रात के उजलाते नभ-पट पर
प्रात की रेखा ।

 


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